बीसवीं सदी का हर बच्चा “भारत देश सोने की चिड़िया होता था” सुनते हुए ही बड़ा हुआ है। लेकिन इस कथन में कितनी सत्यता है, इसकी जांच-पढ़ताल करने के लिए इतिहास के कुछ पन्नों को पलटना जरूरी है।
गुप्त वंश की व्युत्पत्ति:
इतिहासकार मानते हैं कि भारत के इतिहास को खँगालने से पता लगता है कि 185 ईपू में भारत बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा हुआ था। उस समय मौर्य साम्राज्य का पतन हो रहा था और कुषाण व सातवाहन वंश भी भारत कि स्थिरता को वापस लौटाने में असमर्थ रहे थे। कुषाण वंश के सामंतों के रूप में गुप्त वंश ने अपना राजनीतिक सफर उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य से शुरू किया था। इसके बाद गुप्त शासक मध्य गंगा, प्रयाग और अयोध्या होते हुए मगध पर अपना शासन स्थापित करने में सफल रहे थे। गुप्त वंश के संस्थापक श्रीगुप्त को माना जाता है और उनके बाद उनके पुत्र घटोत्कच ने राजगद्दी सम्हाली थी। लेकिन गुप्त वंश के सूर्य को चन्द्रगुप्त प्रथम ने बुलंदियों पर पहुंचाया था। इसी कारण सबसे पहले चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज की उपाधि भी प्राप्त हुई थी।
गुप्त वंश क्यों था स्वर्ण युग:
गुप्त वंश में भारतीय सभ्यता व संस्कृति का सूर्य-प्रकाश अपनी चरम सीमा पर था। इस बात के प्रतीक के रूप में निम्न प्रमाण प्रस्तुत किए जा सकते हैं:
सर्वश्रेष्ट शासन व्यवस्था:
गुप्त शासन व्यवस्था राजतंत्रीय व्यवस्था पर आधारित था जिसमें शासन की बागडोर उत्तराधिकारी को प्राप्त होती थी। इसी व्यवस्था के सुचारु रूप से चलने के कारण गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्यपर्वत तक और पूर्व में बंगाल की खड़ी से लेकर सौराष्ट्र तक फैला हुआ था। इसके अतिरिक्त पूरी शासन व्यवस्था देश नाम की इकाई से शुरू होकर ग्राम इकाई तक में विभाजित थी जिसके कारण हर स्तर पर शासन करना सरल था। राजनीतिक एकता स्थापित होने के कारण गुप्त वंश में हर स्तर पर स्थिरता स्थापित हो चुकी थी।
आर्थिक समृद्धि :
किसी भी देश की समृद्धि उसमें एकत्र होने वाले राजस्व या करों से मिलकर बनती है। गुप्त वंश में करों से प्राप्त होने वाली आय के कारण इसके शासक समुद्रगुप्त को कुबेर भी कहा जाता था। इस समय न केवल कर व्यवस्था सुदृढ़ थी बल्कि आय के अन्य स्त्रोत जैसे भू-राजस्व तथा भूमि के माध्यम से मिलने वाली संपत्ति जैसे रत्न, खदान, नमक व छिपे खजाने पर भी राजा का अधिकार होता था।
व्यापार व वाणिज्य:
किसी भी देश में व्यापार व वाणिज्य उसकी रीढ़ की हड्डी माने जाते हैं। गुप्त साम्राज्य में मध्य और उत्तर भारत के विभिन्न शहर जैसे उज्जैन, भड़ौच, प्रतिष्ष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिपि, मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी आदि प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र के रूप में जाने जाते थे। इन सभी राज्यों में उज्जैन का बहुत महत्व था क्योंकि यह देश ही नहीं विदेशी मार्ग से भी अच्छी तरह से जुड़ा हुआ था। निर्यात की अधिकता के कारण स्वर्ण भंडार हमेशा भरा रहता था।
धार्मिक-आस्था में संतुलन:
गुप्त काल में सर्व-धर्म सम्मान की भावना प्रबल थी। ब्राह्मण व हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान के साथ ही शैव व वैष्णव धर्म का भी समान रूप से ज़ोर था।
कला एवं संस्कृति:
गुप्त काल को कला, साहित्य, संस्कृति व स्थापत्य का भी स्वर्ण युग कहा जाता है। गुप्तकालीन मंदिर उच्चकोटी की स्थापत्य कला के प्रतीक आज भी माने जाते हैं। अजंता-एलोरा की गुफाएँ चित्रकला का बेजोड़ नमूना हैं और साहित्य जगत के विभिन्न रत्न गुप्त काल की ही देन हैं। कालीदास, आर्यभट्ट और वराहमिरि जैसे साहित्यकार की रचनाएँ आज भी प्रासंगिक मानी जाती हैं।
विज्ञान एवं तकनीक:
इस युग के वैज्ञानिक व गणितज्ञ आर्यभट्ट थे जिन्होनें एक ओर पृथ्वी की त्रिज्या की गणना करके भूगोल के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित किए थे। वहीं दूसरी ओर ब्रह्मांड में सूर्य को केंद्र का आधार बताते हुए एक नए सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इन्हीं के समकक्ष वराहमिरि ने चंद्र कैलेंडर शुरू करके समाज को एक नया रूप देने का प्रयास किया था।
उपसंहार:
कहते हैं व्यक्ति से समाज और समाज से देश का निर्माण होता है। इसी नियम के चलते जहां एक ओर समाज का हर व्यक्ति सुखी व सम्पन्न था वहीं गुप्त वंश में कला और विज्ञान को एकसमान सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त थी। यही भारत के स्वर्ण युग की पहचान मानी जाती है।
निष्कर्ष
ये लेख हमे बताता है की क्यों भारतीय इतिहास में गुप्त काल को ‘भारत का स्वर्ण युग ‘ कहा जाता है। गुप्त साम्राज्य के समय भारत में विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, धर्म आदि क्षेत्रों में विकास हुआ। ना सिर्फ इतना बल्कि उस समय देश में जो शांति थी, जो विकास हुआ और समृद्धि हुयी, वो इस बात का गवाह है।